कपास एक महत्वपूर्ण नकदी फसल है. व्यापार जगत में इसे 'सफेद सोना' कहा जाता है। राज्य में कपास का रकबा 50 लाख हेक्टेयर था, जो घटकर 14 हजार हेक्टेयर रह गया है. देश में कपास के अधिक उत्पादन की आवश्यकता है।
भूजल की कमी, कपास की कीमतों में वृद्धि, फसल सुरक्षा प्रौद्योगिकियों में सुधार, कपास-गेहूं फसल चक्र के लिए कम समय में अधिक उपज देने वाली फसल किस्मों का विकास, बिनौला तेल और खली की खपत में वृद्धि, भारत सरकार के 'कपास प्रौद्योगिकी मिशन' की स्थापना।
कपास की खेती के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ। राज्य में कपास की औसत उपज 2 क्विंटल/हेक्टेयर है। सभी कपास उत्पादक देशों में सबसे कम। इसकी कम लाभप्रदता के कारण, किसानों की कपास उत्पादन में रुचि नहीं है। आधुनिक कम उपज और फसल सुरक्षा तकनीकों को अपनाकर कपास से 15 किलोग्राम/हेक्टेयर तक की औसत उपज प्राप्त की जा सकती है और 15-12 रुपये/हेक्टेयर का लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
फसल उत्पादन तकनीक
जलवायु की आवश्यकता
उत्तम जमाव हेतु न्यूनतम 16 डिग्री सेन्टीग्रेट तापमान फसल बढ़वार के समय 21 से 27 डिग्री सेन्टीग्रेट तापमान व उपयुक्त फलन हेतु दिन में 27 से 32 डिग्री सेन्टीग्रेट तापमान तथा रात्रि में ठंडक का होना आवश्यक है। गूलरों के फटने हेतु चमकीली धूप व पाला रहित ऋतु आवश्यक है।
भूमि
बलुई, क्षारीय,कंकड़युक्त व जलभराव वाली भूमियां कपास के लिए अनुपयुक्त हैं। अन्य सभी भूमियों में कपास की सफलतापूर्वक खेती की जा सकती है।
फसल चक्र
कपास | गेहूं |
कपास | सूरजमुखी |
कपास | बरसीम/जई |
कपास | सूरजमुखी-धान-गेहूँ |
कपास | गन्ना- गेहूँ |
कपास | मटर |
कपास | मटर-गन्ना-गन्ना पेडी |
प्रजातियाँ
प्रजाति | अवधि | औसत उपज(हे./हे) | रेशे की लम्बाई (मिमी) | ओटाई (प्रतिशत) | कताई अंक |
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देशी | |||||
लोहित | 175-180 | 15 | 17.5 | 38.5 | 6-8 |
आर.जी. 8 | 175-180 | 15 | 16.5 | 39.0 | 6-8 |
सी.ए.डी. 4 | 145-150 | 16 | 17.5 | 39.4 | 6-7 |
अमेरिकन | |||||
एच.एस. 6 | 165-170 | 12 | 24.8 | 33.4 | 30 |
विकास | 150-165 | 16 | 25.6 | 34 | 30 |
एच. 777 | 175-180 | 16 | 22.5 | 33.8 | 30 |
एफ.846 | 175-180 | 14 | 25.4 | 35 | 30 |
आर.एस. 810 | 165-170 | 15 | 25.2 | 34.2 | 30 |
आर.एस. 2013 | 160-165 | 16 | 26 | 35 | 30 |
लोहित सी.ए.डी. 4 एवं विकास उत्तर प्रदेश के लिए संस्तुत प्रजातियां हैं। अन्य प्रजातियां परीक्षणों में उत्तम पाई गई हैं उनमें आर.जी.-8 आर.एस.- 810, राजस्थान की एफ.-846 पंजाब की एच.-777 व एच.एस.-6 हरियाणा की प्रजातियां हैं। इनकी खेती भी प्रदेश में की जा सकती है।
कपास की बुवाई से पूर्व दो बार पलेवा की आवश्यकता होती है। पहला पलेवा लगाकर मिट्टी पलटने वाले हल से एक गहरी जुताई (20-25 सेमी०) करनी चाहिए। दूसरा पलेवा कर कल्टीवेटर या देशी हल से तीन-चार जुताइयां करके खेत तैयार करना चाहिए। उत्तम अंकुरण के लिए भूमि का भुरभुरा होना आवश्यक हैं। मथुरा, आगरा आदि जनपदों में जहां नलकूपों में खारा पानी है वहाँ नहरों के पानी द्वारा पलेवा कर खेत की तैयारी करें।
बीज दर की मात्रा
देशी प्रजाति | 15 किलोग्राम प्रति हेक्टर (रेशा रहित) |
अमेरिकन प्रजाति | 20 किलोग्राम प्रति हेक्टर (रेशा सहित) |
गंधक के अम्ल द्वारा कण का रेशाविक्सनीकरण
बीजों को एक मिट्टी के बर्तन/प्लास्टिक के बर्तन में रखें और वाणिज्यिक सल्फ्यूरिक एसिड (10 किलोग्राम अमेरिकी बीजों के लिए 1 किलोग्राम सल्फ्यूरिक एसिड और 6 किलोग्राम स्थानीय बीजों के लिए 600 ग्राम सल्फ्यूरिक एसिड) डालें और प्लास्टिक की छड़ी या छड़ी से बीजों को हिलाएं। . ऐसा इसलिए किया जाना चाहिए ताकि सभी बीज एसिड के संपर्क में रहें। रेशों को जलाने की प्रक्रिया में 2-3 मिनट का समय लगता है।
जैसे ही रेशे गर्म हो जाएं, 10 लीटर ताजा पानी डालें और बीजों को किसी छड़ी या छड़ी से हिलाएं। इसके बाद बीजे हुए एसिड के घोल को छोटे-छोटे छेद वाले प्लास्टिक के स्ट्रॉ में डालें और पूरी तरह निकालकर ताजे पानी से तीन-चार बार धो लें।
शोधित बीजों को एक रासायनिक घोल (50 ग्राम सोडियम बाइकार्बोनेट और 10 लीटर पानी) में 1 मिनट के लिए भिगो दें और फिर से साफ पानी से धो लें (ऐसा करने से बचे हुए एसिड की गतिविधि भी सक्रिय हो जाती है); धोते समय सतह पर तैर रहे हल्के, अपरिपक्व और टूटे हुए बीजों को हटा दें। केवल भारी, स्वस्थ बीजों को छाया में पतला फैलाकर प्रचारित करें।
ये सावधानियां जरूर रखें
रेशारहित बीज की ग्रेडिंग की जा सकती है जबकि रेशायुक्त की नहीं।अम्ल द्वारा बीज के ऊपर की फफूंदी, शाकाणु झुलसा रोग के जीवाणु व गुलाबी कीट के डिम्भ नष्ट हो जाती हैं।बीजों में नमी शोषित करने की क्षमता बढ़ जाती है, जिसके अंकुरण अच्छा होता है।
बीज शोधन कैसे करें?
बीजों को सुखाकर कार्बेन्डाजिम फफूंदनाशी 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम की दर से प्रयोग करें। राइजोक्टोनिया, जड़ सड़न, फ्यूसेरियम विल्ट और मिट्टी में अन्य कवक के कारण होने वाली बीमारियों को एंटीफंगल एजेंटों के साथ उपचार द्वारा रोका जा सकता है। कार्बेन्डाजिम एक रसायन है. इस कारण सबसे पहले रोग के आक्रमण को रोका जा सकता है।
बुवाई उपयुक्त समय जो कि लाभदायक होगा
जनपद | प्रजाति | बुवाई का उपयुक्त समय |
मथुरा, आगरा | देशी | अप्रैल का प्रथम पखवारा |
अमेरिकन | मध्य अप्रैल से मध्य मई | |
अन्य जनपद | देशी | अ्रप्रैल का प्रथम व दूसरा पखवारा |
अमेरिकन | मध्य अप्रैल से मई का प्रथम सप्ताह |
बुवाई व दूरी
सामान्यत: कपास की बुवाई हल के पीछे कूंड़ों में की जाती है। ट्रैक्टर द्वारा बुवाई करने पर कतार से कतार की दूरी 67.5 सेमी. व पौध से पौध की दूरी 30 सेमी. तथा देशी हल से बुवाई करने पर कतारों के मध्य की दूरी 70 सेमी. व पौधे से पौधे की दूरी 30 सेमी. हो।
भूमि में जहां जलस्तर ऊँचा हो या लवणीय मिट्टी/पानी हो या जलभराव की समस्या हो वहां मेड़ों पर बुवाई करना उपयोगी है। इसके लिए 20-25 सेमी. ऊंची मेड़े बनाकर नीचे से दो तिहाई भाग पर निश्चित दूरी पर खुर्पी द्वारा मेड़ों पर बुवाई करें। बुवाई हेतु प्रतिस्थान केवल 4-5 बीज ही प्रयोग करें।
ध्यान दे
यदि 27 किग्रा.डी.ए.पी./एकड़ प्रयोग किया जावे यूरिया की मात्रा 10 किग्रा. कम कर दें। यदि कपास की बुवाई गेहूँ के बाद की जावे और गेहूँ में संस्तुत फास्फोरस की मात्रा प्रयोग किया गया हो तो फास्फोरस न दिया जावे।
नत्रजन की आधी फास्फोरस की पूरी मात्रा खेत में बुवाई से पूर्व कूड़ों में आखिरी जुताई पर करनी चाहिए। यदि किसी कारण बुवाई के पूर्व नत्रजन न दिया जा सके तो उसे छटाई (प्रूनिंग) के बाद दिया जावे।
शेष नत्रजन का प्रयोग बराबर मात्रा में फूल प्रारम्भ होने व अधिकतम फूल आने पर (जुलाई में) करें। इस बात का ध्यान रखें कि नत्रजन पौधे के बगल ही में दिया जावे (पौधे के तने से चार इंच दूर) न कि पत्तियों पर यदि फूलों व गूलरों का झरण अधिक हो व लगातार आसमान में बदली छाई रहने के कारण धूप पौधों को न मिले तो 2 प्रतिशत डी.ए.पी. घोल का छिड़काव करना लाभप्रद है।
खरपतवार नियंत्रण इस आसान टेक्निक से करे
कपास की अच्छी फसल के लिए खरपतवारों पर पूर्ण नियंत्रण कर पाना बहुत जरूरी है। इस कारण से, बढ़ते मौसम के दौरान ट्रैक्टर चालित कल्टीवेटर या बैल चालित ट्राइफोली कल्टीवेटर से तीन-चार बार निराई-गुड़ाई करनी चाहिए।
पहली खरपतवार सूखी होनी चाहिए, और पहली फसल बोने से पहले (बुवाई से 30-35 दिन पहले) सूख जानी चाहिए। फूल आने तथा गूलर आने पर कल्टीवेटर का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इन मामलों में, कर द्वारा कचरा हटाया जाना चाहिए। 3.30 किलो वजन. पेंडिमेथालिन एक मध्यम खुराक है। अरे। जमने से पहले या बुआई के 2-3 दिन के भीतर उपयोग करें।
फसल सुरक्षा तकनीक
- अम्ल उपचारित बीजों का ही बुवाई हेतु प्रयोग किया करे।
- अमेरिकन कपास में शाकाणु झुलसा रोग (वैक्टीरियल ब्लाइट) तथा फफूंद जनित रोगों के बचाव हेतु खड़ी फसल में वर्षा प्रारम्भ होने पर दो छिड़काव 20-25 दिनों के अन्तर से रसायन घोल (1.250 ग्राम कापर आक्सी क्लोराइड 50% घुलनशील चूर्ण व 50 ग्राम एग्रीमाइसीन/7.5 ग्राम स्ट्रेप्टोसाइक्लीन सल्फेट प्रति हेक्टर की दर से) 600-800 लीटर पानी में घोलकर। इन रसायनों का प्रयोग कीटनाशक रसायनों को 600-800 लीटर पानी के साथ किया जा सकता है।
- अमेरिकन कपास में हरा फुदका (जैसिड) व सफेद मक्खी का प्रकोप अधिक होता है। इन रस चूषक कीटों का नियंत्रण आर्थिक क्षति स्तर ज्ञात करने के बाद ही करना चाहिए। नेपसेक मशीनों हेतु 300 लीटर व शक्ति चालित मशीनों हेतु 125 ली० घोल प्रति हेक्टेर पर्याप्त है।
Kapas ki kheti उपज
आमतौर पर, देशी/उन्नत प्रजातियों का चयन नवंबर से जनवरी-फरवरी तक, संकर प्रजातियों का चयन अक्टूबर-नवंबर से दिसंबर-जनवरी तक और बी.टी. किस्मों की कटाई अक्टूबर से दिसंबर तक की जाती है।
जहां बीटी चयन किस्म भी जनवरी-फरवरी तक चलती है। स्थानीय/Kapas ki kheti उन्नत किस्मों से 10-15 क्विंटल प्रति हेक्टेयर, संकर किस्मों से 13-18 क्विंटल प्रति हेक्टेयर एवं बी.टी. किस्में औसतन 15-20 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती हैं।
Kapas Ki Kheti Kaise Karen 2024 ( Cotton Farming) FaQ
Q. कपास बोने का सही समय कौन सा है?
Ans. कपास की बुआई के लिए 15 जून से जून के अंतिम सप्ताह तक का समय सर्वोत्तम है। हालाँकि, गुलाबी कपास के कीड़े भी होते हैं। लेकिन समय पर बुआई करने से प्रकोप कम हो जाता है।
Q. 1 एकड़ में कपास कितना निकलता है?
Ans. वर्तमान में उत्पादन की दृष्टि से प्रति एकड़ 8 क्विंटल कपास का औसत उत्पादन होता है। मौजूदा बाजार मूल्य 7,000 रुपये प्रति क्विंटल पर किसान को 56,000 रुपये मिलते हैं.
Q. कपास की खेती कैसे करे?
Ans. सघन कपास खेती में पंक्तियों में 45 सेमी की दूरी पर और पौधे 15 सेमी की दूरी पर लगाए जाते हैं, इस प्रकार प्रति हेक्टेयर 1,48,000 पौधे लगाए जाते हैं। बीज की दर 6 से 8 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर दी जाती है। इससे पैदावार 25 से 50 फीसदी तक बढ़ जाती है.
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